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मौन रह सकते हैं क्या ?

बोलते ही दूसरा महत्वपूर्ण हो जाता है।
बोलते ही मन वही बोलने लगता है जो दूसरे को प्रीतिकर हो।
बोलते ही मन शिष्टाचार, सभ्यता की सीमा में आ जाता है।
बोलते ही हम स्वयं नहीं रह जाते, दूसरे पर दृष्टि अटक जाती है।
इसलिए बोलना और ईमानदार रहना बड़ा कठिन है।
बोलना और प्रामाणिक रहना बड़ा कठिन है।
अच्छा है, इतनी समझ आनी शुरू हुई।
शुभ लक्षण है।
ज्यादा से ज्यादा चुप रहना उचित है।
पहली कला चुप होने की सीखनी पड़ेगी।
उतना ही बोलो जितना अत्यंत अनिवार्य हो।
जिसके बिना चल जाता हो उसे छोड़ दो, उसे मत बोलो।
और तुम अचानक पाओगे कि नब्बे प्रतिशत से ज्यादा तो व्यर्थ का है, न बोलते तो कुछ हर्ज न था, बोल के ही हर्ज हुआ।
बड़े विचारक पैस्कल ने कहा है कि दुनिया की नब्बे प्रतिशत मुसीबतें कम हो जाएं, अगर लोग थोड़े चुप रहें।
झगड़े—फसाद कम हो जाएं, उपद्रव कम हो जाएं, अदालतें कम हो जाएं, अगर लोग थोड़े चुप रहें।

With grace & peace,
holykarma.au

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