प्रेम नाजुक चीज है, कोमल चीज है। देने से, बांटने से बढ़ता है; मांगने से, राह देखने से घटता है। जिससे भी तुम प्रेम चाहोगे, वही सिकुड़ जाएगा, वही तुमसे दूर हट जाएगा।
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और जिसको भी तुम प्रेम दोगे बिना किसी मांग, बिना किसी शर्त के वही तुम्हारे निकट आ जाएगा और तुम्हारे हृदय को अनंत-अनंत संपदाओं से भर देगा।
अगर आप सोचते हो कि प्रेम कहीं बाहर से आएगा, कोई आकर देगा।फिर वह चाहे तुम्हारी पत्नी हो, चाहे पति, चाहे बेटा, चाहे पिता और चाहे परमात्मा, लेकिन तुम्हारी प्रेम की दृष्टि यह है कि कोई देगा। और वहीं भूल हो रही है।
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प्रेम दिया नहीं जाता। कोई देता नहीं। प्रेम बांटा जाता है। तुम्हें उसे विकीर्णित करना होता है।
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जैसे दीये से रोशनी झरती है, ऐसे तुमसे प्रेम झरना चाहिए। और तुमसे झरे प्रेम तो अनंत होकर लौटता है। मगर हमारी सोचने की प्रक्रिया गलत है।
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हम हमेशा यह सोचते हैं कोई मुझे प्रेम दे! मुझे प्रेम क्यों नहीं देते हैं लोग!इस भाषा में सोचना छोड़ो।
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मांगे तो चूके। भिखमंगे बने कि भटके। प्रेम तो मालिकों का है, भिखमंगों का नहीं।
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दोगे तो मिलेगा, बहुत मिलेगा मगर कहीं भी मन के किसी कोने-कातर में पाने की आकांक्षा मत रखना, उतनी आकांक्षा भी जहर घोल देगी। और एक बूंद जहर भी पर्याप्त है मार डालने को।
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