सुखासन में बैठ जाना है। पर जब एक बार बैठ गए और एक घंटा बैठने का तय किया तो फिर एक घंटा शरीर की नहीं सुनना है। आप चकित होओगे, थोड़े ही दिन में- 21 दिन के भीतर, आपको आश्चर्य होगा- अगर आपने हिम्मत रखी और मन की शुरूआती भटकावों की तरफ नहीं झुकें, शरीर आवाज देना बंद कर देगा। और जब शरीर आवाज देना बंद कर दे, तब आप मन की तरफ ध्यान देना।
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सीधे मन की तरफ ध्यान नहीं देना है। शुरू में मन के साथ उलझना ठीक नहीं है। पहले शरीर को साथ हो जाने दीजिए। जिस दिन पाओ कि अब शरीर कोई उपद्रव खड़ा नहीं कर रहा है, वह बैठने को राजी हो गया है तो समझिए आपकी आधी यात्रा पूरी हो गई; आधी से भी ज्यादा पूरी हो गई। क्योंकि मन भी शरीर का ही हिस्सा है।
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यदि पूरा शरीर बैठने को राजी हो गया तो अब यह हिस्सा ज्यादा देर बगावत नहीं कर सकता। यह सबसे ज्यादा बगावती है; लेकिन फिर भी शरीर का ही हिस्सा है। और जब पूरा शरीर आसन में आ गया तो यह ज्यादा देर यहाँ-वहाँ नहीं भटक पाएगा। यह भी बैठ जाएगा।
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शरीर को आसनस्थ कर लेने का अर्थ है कि शरीर का सब उपद्रव शांत हो गया। अब आप ऐसे बैठते हो जैसे अशरीरी हो; जैसे शरीर है ही नहीं, शरीर का पता ही नहीं चलता; बस आप बैठे हो। अब आप मन पर ध्यान देना। और, मन की भी प्रक्रिया वही है कि मन कुछ भी कहे, सुनना मत। कोई प्रतिक्रिया मत करना।
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मन में विचार चले तो वैसे देखना है, जैसे आप तटस्थ हो; जैसे आपका कोई लेना-देना नहीं है; जैसे ये विचार किसी और के मन में चल रहा हैं, बहुत दूर है आपसे; जैसे रास्ते पर शोरगुल चल रहा है या जैसे आकाश में बादल चल रहे हैं, आपका कुछ लेना-देना नहीं। उपेक्षा से आप देखते रहना।
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पहले शरीर को शांत हो जाने देना, फिर धीरे-धीरे, शरीर कोई तीन सप्ताह लेगा; मन कोई अन्दाजन तीन महीने लेगा। थोड़ा कम-ज्यादा हो सकता है। कैसी प्रगाढ़ता है आपकी, उस पर निर्भर होगा। लेकिन करीब छह महीने के भीतर आप पाओगे कि आसनस्थ दशा आ गई। अब न शरीर कोई क्रिया करता है, न मन कोई क्रिया करता है।
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मन से लड़ना नहीं है। न मन को दबाने की कोशिश करना है कि नहीं, विचार मत करो; क्योंकि ध्यान रखना यह भी विचार है, इतने विचार को भी आपने अगर सहारा दिया तो मन जारी रहेगा। मन न मालूम कितने उपद्रव खड़े करेगा।
आप लड़ना भी मत; क्योंकि लड़ने का मतलब है कि आप राजी हो गए प्रतिक्रिया करने को, आप उपेक्षा न कर पाए। उपेक्षा सूत्र है। आप बस देखते रहना। कुछ कहना ही मत। थोड़ी मुश्किल होगी, क्योंकि पुरानी आदतें हैं। सदा की आदतें हैं- उसके साथ प्रतिक्रिया करने की, बातचीत करने की, उत्तर देने की।
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धीरे-धीरे, आप सिर्फ देखते-देखते उस घड़ी में आ जाएँगे, जब आप सिर्फ बैठे हो, कुछ भी नहीं हो रहा है। न शरीर में कोई गति है, न मन में कोई गति है। जिस दिन शरीर और मन दोनों की गति शांत हो जाए, उस अवस्था का नाम आसनस्थ है।
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