आदमी ने निरंतर जानना चाहा है, कैसे यह सृष्टि निर्मित होती है? कैसे विलीन होती है? कौन इसे बनाता? कौन इसे सम्हालता? किस में यह विलीन होती है? कोई है इसे बनाने वाला या नहीं है? इस प्रकृति का कोई प्रारंभ है, कोई अंत है? या कोई प्रारभ नहीं, कोई अंत नहीं? इस प्रकृति में कोई प्रयोजन है, कोई लक्ष्य है, जिसे पाने के लिए सारा अस्तित्व आतुर है, या यह लक्ष्यहीन एक अराजकता है? यह जगत एक व्यवस्था है या एक अराजक संयोग है? और इस प्रश्न के उत्तर पर जीवन का बहुत कुछ निर्भर करता है, क्योंकि जैसा उत्तर हम स्वीकार कर लेंगे, हमारे जीवन की दशा भी वही हो जग़रगी।
ऐसे विचारक रहे हैं, जो मानते हैं कि जीवन एक संयोग, एक एक्सिडेंट मात्र है। कोई व्यवस्था नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं है, कहीं पहुंचना नहीं है, कोई कारण भी नहीं है, सिर्फ जीवन एक दुर्घटना है। ऐसी दृष्टि को जो मानेगा, वह जो कह रहा है, वह सच हो या न हो, उसका जीवन जरूर एक दुर्घटना हो जाएगा। वह जो कह रहा है, वह सारे जगत को प्रभावित नहीं करेगा, लेकिन उसके अपने जीवन को निश्चित ही प्रभावित करेगा।
यदि मुझे ऐसा लगता हो कि यह सारा विस्तार, यह पूरा ब्रह्माड एक संयोग मात्र है, तो मेरे अपने जीवन का केंद्र भी बिखर जाएगा। तब मेरे जीवन की सारी घटनाएं भी संयोग मात्र हो जाएंगी। फिर मैं बुरा करूं या भला, मैं जीऊं या मरूं, मैं किसी की हत्या करूं या किसी पर दया करूं, इन सब बातों के पीछे कोई भी प्रयोजन, कोई सूत्रबद्धता नहीं रह जाएगी। ऐसा जिन्होंने कहा है, उन्होंने जगत को अराजक बनाने में सुविधा दी है।
ईश्वर की धारणा का अर्थ है कि जगत एक व्यवस्था है, एक कास्मास है, केआस नहीं। यहां जो भी हो रहा है, वह प्रयोजनपूर्वक है। और यहां जो भी हो रहा है, उसका कोई गंतव्य है। और यहां जो भी हो रहा है, उसके पीछे कोई सुनियोजित हाथ हैं। यहां जो भी दिखाई पड़ रहा है, वह कितना ही सांयोगिक हो, सांयोगिक नहीं है, कार्य और कारण से आबद्ध है।
ईश्वर की धारणा का जो मौलिक आधार है, वह पहला आधार यही है कि मुनुष्य कुछ भी करे, विचार कुछ भी करे, विचार व्यवस्था के पार नहीं जा सकता है। विचार स्वयं ही व्यवस्था का आधार है। विचार व्यवस्था की मांग है। सोचने का अर्थ ही है कि प्रयोजन है, अन्यथा सोचने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। समझाने का अर्थ है, क्योंकि कोई प्रयोजन है।
और हम जहां भी देखें, वहां जीवन में व्यवस्था के चरण सब जगह दिखाई पड़ते हैं। छोटे—से परमाणु से लेकर आकाश में घूमते हुए विराट महाकाय ताराओं की तरफ हम आंख उठाएं, चाहे क्षुद्रतम में और चाहे विराटतम में, एक गहन, निबिड़ योजना परिलक्षित होती है।
ईश्वर व्यक्ति नहीं है, ईश्वर अंतर्व्यवस्था है। समस्त व्यक्तियों के बीच जो अंतर्व्यवस्था है, उसका नाम ईश्वर है, समस्त वस्तुओं के बीच जो जोड्ने वाली कड़ी है।
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